मक़बूल फ़िदा हुसेन अब क़तर के नागरिक हैं। हालांकि इस दस्तावेज़ी नागरिकता से उनकी भारतीयता ख़त्म नहीं हो जाएगी। वे चाहें तो भी यह मुमकिन नहीं है। अपनी कोख, भाषा और मिट्टी हम चुनते नहीं, वह हमारी पैदाइश के साथ चली आती है। बाद में हम जो हो जाएं, जहां चले जाएं, जैसी भी बोली बोलने लगें, चाहे जिस भी देश की नागरिकता ले लें, हमारी बनावट और बुनावट तय़ करने वाले गुणसूत्र वही रहते हैं, हमारा मुल्क वही रहता है।
मकबूल फिदा हुसेन नाम का कलाकार भी इन्हीं गुणसूत्रों की देन है। उसे पंढरपुर के तीर्थ की मिट्टी ने बनाया है, उसे जैनब की कोख ने बनाया है, उसे हिंदी की फिल्मों ने बनाया है। जिस कला ने उसे शोहरत दी, उसके रंगों में, उसकी रेखाओं में यह पूरी परंपरा तरह-तरह से बोलती है। कतर में भी वे जो काम करेंगे, उसमें हिंदुस्तान बोलेगा। हालांकि शायद तब वह उतना चटख न रह जाए। क्योंकि अंततः अपनी अनुपस्थिति की क़ीमत उन्हें कुछ तो चुकानी ही होगी।
लेकिन अनुपस्थिति की ऐसी नौबत आई क्यों? यह एक मासूम सवाल लग सकता है, क्योंकि सबको मालूम है कि मक़बूल फ़िदा हुसेन के बनाए कुछ चित्रों से नाराज़ समूहों ने उनके विरुद्ध मुक़दमों और प्रदर्शनों की झड़ी लगा रखी थी। लेकिन हुसेन सिर्फ़ इस असहिष्णुता से घबरा कर भागे हों, ऐसा लगता नहीं। वे खुद मानते और बताते हैं कि 99 फ़ीसदी भारतीय उनके साथ खड़े हैं। फिर हुसेन ने अपने विरुद्ध ख़डी कट्टरपंथी ताकतों से संघर्ष क्यों नहीं किया? उनका कुछ बेबसी भरा जवाब यह है कि वे 40 के होते तो करते, 95 बरस की उम्र में उनके पास न इतना वक़्त बचा है न सब्र कि अपने बाकी काम छोड़कर यह लड़ाई लड़ें। कतर ने उन्हें सहूलियतें दीं और साधन दिए इसलिए वे कतर के हो गए।
अब इस प्रश्न को दूसरी तरफ से पूछना चाहिए। भारत अपने एक कलाकार को रोक क्यों नहीं सका? और क्या हुसेन अकेले कलाकार हैं जो भारत छोड़कर चले गए और किन्हीं और देशों के हो गए? ध्यान दें तो ऐसे अनेक भारतीय मूर्द्घन्य हैं जिन्होंने अपनी कला और साधना के लिए पश्चिम को चुना है। भारतीय संगीत और नृत्य से जुडे कई बड़े गुरु विदेशों में बसे हुए हैं। हुसेन आज पराये हुए, सितारवादक पंडित रविशंकर न जाने कब से पराये हैं। यही बात फ्रांस में रह रहे सैयद हैदर रज़ा के बारे में कही जा सकती है। इन लोगों का परायापन चलेगा क्योंकि यह किसी असंतोष से पैदा हुआ परायापन नहीं है, यह बात कुछ जमती नहीं।
बहरहाल, क्या हम हुसेन की, रज़ा की या किसी दूसरे बड़े मूर्द्धन्य की कमी महसूस करते हैं? क्या हमारा समाज अपने कलाकारों और गुरुओं के बिना कोई ख़ला, कोई ख़ालीपन महसूस करता है? हुसेन के संदर्भ में यह तर्क हाल के दिनों में कई बार सुनने को आया है कि अगर हुसेन हिंदुस्तान के न भी रहें तो क्या फर्क पड़ेगा? वैसे भी हुसेन इन दिनों बाज़ार के, बॉलीवुड की सस्ती चमक-दमक के और अपनी शोहरत के गुलाम की तरह कहीं ज्यादा चित्र बना रहे थे, एक ऐसे मेधावी भारतीय की तरह कम, जिसका भारतीय समाज से सीधा संवाद हो। लेकिन यह आरोप सिर्फ़ हुसेन पर क्यों? क्या हमारी समूची समकालीन चित्रकला अपने समाज में कोई जगह बनाने के लिए बेताब दिखती है? उसे आम तौर पर गुणग्राहक दर्शकों से ज्यादा गांठ के पूरे ग्राहकों की तलाश रहती है जो उसके नाम पर बडी रकम का टैग लगा सके। हाल के वर्षों में भारतीय चित्रकारों के नाम जब भी सार्वजनिक चर्चा में आए हैं तो बस यह बताते हुए आए हैं कि सदेबी या क्रिस्टी में किसी ग्राहक ने उनका कितना बड़ा मोल लगाया है।
कमोबेश यही बात संगीत गुरुओं के बारे में कही जा सकती है। उनकी स्थिति बस इस लिहाज से बेहतर है कि उनके कैसेट और सीडी-डीवीडी हिंदुस्तान चले आते हैं, वरना उनके कंसर्ट अक्सर विदेशों में या फिर बड़े भारतीयों के बीच होते हैं। वे ग्रैमी और ऑस्कर के लिए जाना जाना ज्यादा पसंद करते हैं।
सवाल है, यह किसका कसूर है? क्या कलाकारों का, जो अपने समाज और देश के प्रति उस तरह निष्ठावान नहीं हैं जिस तरह उनके होने की अपेक्षा हम उनसे कर रहे हैं? या फिर समाज का, जिसमें अपने कलाकारों को प्रेरित कर सकने लायक ऊर्जा और ऊष्मा नहीं बची है?
इस सवाल का जवाब आसान नहीं है। कुछ अफसोस के साथ हमें यह मानना पड़ता है कि हाल के वर्षों और दशकों में भारतीय समाज की सांस्कृतिक-सामाजिक चेतना कुंद पड़ी है। इस दौर में पैदा हुई नई उपभोक्तावादी भूख ने उसकी प्राथमिकताएं जैसे बदल दी हैं। संगीत के लिए उसकी कॉलर ट्यून है, चित्रों के लिए उसके स्क्रीनसेवर हैं, नाटक की जगह वह कॉमेडी सर्कस और रियलिटी शो देखता है और मनोरंजन और संस्कृति की बची-खुची ज़रूरत फिल्मों से पूरी कर लेता है। इस सांस्कृतिक शून्य में सतही राजनीति उसे समझाती है कि साहित्य और धर्म का मतलब क्या होता है, कला और देश का मतलब क्या होता है। जब यह सतही राजनीति हमारे सांस्कृतिक मूल्य निर्धारित करने लगती है तो वह कलाकार का धर्म देखती है, कला के आवरणों को समझने की जगह निरावृत्त सरस्वती और भारतमाता को देखकर उत्तेजित होती है और कलाकार से पूछती है कि वह किसी दूसरे धर्मगुरु की तस्वीर क्यों नहीं बनाता।
कलाकार इस सवाल का जवाब कैसे दे? कैसे बताए कि कला की प्रेरणाओं के पीछे धर्म के ऐसे सुचिंतित आग्रह नहीं होते? किसे बताए कि उसने जो चित्र बनाए हैं, वे उस तरह अश्लील या नग्न नहीं, जिस तरह प्रचारित किए जा रहे हैं। वे बस चित्रकला की बहुत आम परंपरा के प्रयोग हैं जिसमें नग्नता कहीं से वर्जित नहीं है और न ही वह अश्लील नजर आती है।
अगर समाज इन प्रयोगों से परिचित होता तो वह शायद बहस कर पाता कि ये चित्र अच्छे हैं या नहीं। हुसेन के अपने कृतित्व में सीता, सरस्वती या भारत माता के जैसे चित्रों की जगह कितनी है। तब शायद उसे यह भी मालूम होता कि हुसेन ने सिर्फ ऐसे चित्र ही नहीं बनाए हैं, इनसे कई गुना ज्यादा ऐसे देवी-देवताओं को चित्रित किया है जो हमारी परंपरा का सुरुचिपूर्ण और कलात्मक विस्तार करते हैं। उन्होंने ऐसे गणेश बनाए हैं जो लुभाते हैं, ऐसी सरस्वती भी चित्रित की है जो श्रद्धा जगाती है, अपनी मां की तलाश करते-करते हुसेन मदर टेरेसा तक पहुंच गए हैं और नीली कोर वाली उजली साड़ी में उन्होंने करुणा की ऐसी मूरतें बनाई हैं जिनके सामने सिर झुकाने की इच्छा होती है।
यह सब मालूम होता तो समाज अपने कलाकार का ज्यादा सम्मान करता। जिन चित्रों को वह आपत्तिजनक मानता, उनके प्रति भी क्षमाशील होता। लेकिन कलाकार और उसका समाज एक-दूसरे से अजनबी हैं। दुर्भाग्य की बात यह है कि यह सिर्फ एक कलाकार की स्थिति नहीं, हमारे पूरे सांस्कृतिक संसार की नियति है।
यह स्थिति किसी मकबूल फिदा हुसेन को कतर जाने के लिए मजबूर करती है। राजनीतिक व्यवस्था बताती है कि हुसेन भारत लौटने के लिए स्वतंत्र हैं और उन्हें यहां पूरी सुरक्षा दी जाएगी। वह व्यवस्था यह नहीं समझती कि मामला किसी ख़ास नागरिक को सुरक्षा मुहैया कराने का नहीं, स्वतंत्रता का एक ऐसा माहौल बनाने का है जिसमें कोई आदमी आजादी से घुमफिर सके, लिख-पढ़ सके, सोच-विचार सके। जहां उसे यह डर न हो कि उसके किताबें जलाई जाएंगी, उसकी तस्वीरें नष्ट की जाएंगी, उसकी फिल्मों के प्रद्रर्शन रोके जाएंगे, उसके रंगमंच के दौरान हंगामा होगा। राज्य या समाज से यह न्यूनतम अपेक्षा है जो कोई लेखक या कलाकार कर सकता है, वरना राज्य के फर्ज़ कहीं ज़्यादा दूर तक जाते हैं, उसे कला और साहित्य को संरक्षण देने की ज़िम्मेदारी उठानी पड़ती है।
लेकिन जो व्यवस्था न्यूनतम मानवीय मूल्यों की क़द्र नहीं करती, उससे हम कला और साहित्य से जुड़े मूल्यों के सम्मान की उम्मीद रखें तो इसमें हमारी नादानी झांकती है। दुर्भाग्य से अभी जो कुछ हो रहा है, वह इन अपेक्षाओं का विलोम है। हमारी लोकतांत्रिक आजादी पर दबाव बढे हैं, हमारी अभिव्यक्ति पर पहरे कड़े हुए हैं। जो लोग हुसेन से यह शिकायत कर रहे हैं कि उन्होंने संघर्ष किए बिना कट्टरपंथियों से हार मान ली, उन्हें बताना चाहिए कि उन्होंने एक दूसरे बूढ़े, रंगकर्मी हबीब तनवीर के संघर्ष में कितना साथ दिया था। हबीब के नाटकों पर लगातार हमले हुए। उन्हें बचाने कौन आया? बांग्लादेश की एक लेखिका हमसे सम्मानजनक शरण्य मांग रही है, हम वह देने को तैयार नहीं हैं।
यह सिर्फ कला–संस्कृति का नहीं, पूरे समाज के प्रति सरोकार और संवेदनशीलता का मामला है। जिस व्यवस्था में यह संवेदनशीलता नहीं होती, उसमें फासीवादी ताकतों की गुंजाइश बढती जाती है। दुर्भाग्य से हमारी व्यवस्था इसी दिशा में बढ़ रही है।
कतर जाने का फैसला मकबूल फिदा हुसेन की मजबूरी हो या मंशा, इसमें जितनी उनकी दरारें दिखती हैं, उससे ज्यादा हमारे समाज की। 95 साल की उम्र में जिस बूढ़े को अपना घर छोड़ना पड़े, वह एक बदनसीब बूढ़ा होता है। लेकिन जिस मुल्क को उसके लेखक और कलाकार छोड़कर चले जाते हैं, वह कहीं ज्यादा बदनसीब होता है, और इस अर्थ में असुरक्षित भी कि वहां आततातियों और फासीवादियों का कब्ज़ा बढ़ने का अंदेशा बड़ा होता जाता है। अब हुसेन नहीं हैं तो हमारी सरस्वती कहीं ज़्यादा खतरे में है।