अप्रैल १९८० में पहली बार रांची में मेरे घर फोन लगा। मुझे उन दिनों अपने परिचितों के सारे फोन नंबर याद रहते। १९९३ में दिल्ली आया तो रांची के पांच अंकों वाले नंबरों की जगह आठ अंकों वाले नंबरों से पाला पड़ा। लगा कि इन्हें याद रखना मुश्किल है। लेकिन धीरे-धीरे इन नंबरों को याद रखने का अभ्यास हो गया। अपनी याददाश्त पर इस भरोसे या गुमान की वजह से ही मेरी फोन डायरी हमेशा अस्त-व्यस्त या आधी-अधूरी रहती। इसी तरह तारीखों और पंक्तियों को याद रखने का भी मेरा एक अभ्यास बना रहा। लेकिन अब ये सारे अभ्यास बेमानी जान पड़ते हैं। मोबाइल फोन का स्मृति कोष इतना पर्याप्त और त्वरित है कि नंबर याद रखना दूर, उसे देखने की भी जरूरत नहीं पड़ती। जाहिर है, मोबाइल ने यह सुविधा दी है कि तनाव से भरे अपने मस्तिष्क में मैं फोन नंबर याद रखने का नया तनाव मैं न पालूं।
तकनीक ऐसी और भी कई सुविधाएं दे रही है। अध्ययन, मनन या तथ्यों का संचयन पुराने ज़माने की बात है। आज आप गूगल पर जाकर सर्च करें तो पलक झपकते इतनी सूचनाएं आपके सामने उपस्थित हो जाती हैं कि अपनी याद के सहारे कुछ लिखना आपको हास्यास्पद मालूम पड़ता है। अगर किसी रूपक की तरह देखना चाहें तो कह सकते हैं कि तकनीक ने स्मृति को बेमानी बना डाला है। याददाश्त आज फुरसत वाले लोगों का विलास है वरना कंप्यूटर और इंटरनेट सबके पास है। लेकिन क्या यह पूरा सच है? अपने ही अनुभव से जानता हूं कि जितनी तेजी से मैं तारीखें और संख्याएं याद रखता हूं, उतनी ही तेजी से नाम, गलियां और चेहरे भूल जाता हूं। इस भुलक्कड़ी ने मेरे लिए लगभग लज्जित होने की स्थितियां बनाई हैं। यानी स्मृति और विस्मृति का एक खेल हमारे मस्तिष्क के अभ्यास से बनता चलता है। हम चाहें तो हमारे हिस्से की स्मृति का बोझ उठा कर तकनीक जो नई जगह दे रही है, उसका कहीं ज्यादा बेहतर इस्तेमाल कर सकते हैं। लेकिन यहां भी एक फांस है। तकनीक अगर एक बोझ उठा रही है तो कई नई गठरियां हमारे ऊपर लाद भी रही है। याद आप तब करेंगे जब वर्तमान से फुरसत पाएंगे- लेकिन आपके पास आपका टीवी है, फोन है, इंटरनेट है, याहू है, यू ट्यूब है- यानी किस्सों, रंगों, सूचनाओं, संवादों और चित्रों से लैस एक ऐसी दुनिया है जिसमें आप पलट कर अपने को भी नहीं देख सकते, दूसरे को क्या देखेंगे। यह आज आप पर इस तरह हावी है कि आने वाले कल आपके दिमाग से गायब है- फिर बीता हुआ कल आपकी स्मृति में क्यों बचेगा?
Sunday, November 23, 2008
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2 comments:
प्रियदर्शन जी,आपके ख्याल से पूरा इत्तेफाक रखती हूँ...,इंटरनेट,ऑरकुट की तकनीकी दुनिया में...आस पास की दुनिया ही खो गई...दिलचस्प तब होता है जब लोग अपने आसपास के लोगों से पूरी संवादहीनता रखते हैं...लेकिन मीलों दूर वक्त पड़े संदेश देखने वाले किसी अपने मित्र की खातिर घँटो की बोर्ड पर ऊंगलियाँ चलाया करते हैं। आपकी मुरीद हूँ...बात पते से लेकर भरोसा तक...।
ऊपर वाले ने आदमी को ये इनायत....जी हाँ इनायत बख्शी है...कि वो जरुरत भर चीजें ही याद रखे...अनावश्यक चीजें भूल जाए....जैसे आप हमें भूल गए आपके दूसरे ब्लॉग पर याद दिलाने पर भी याद नही करते...हमारी पोस्ट को खा जाते हैं....अब तो रांची जैसे भूली-बिसरी बात हो चुकी है...और यहाँ के लोग भी बिसराए हुए फालतू के......अगर आपके पास राजेश प्रियदर्शी का ईमेल एड्रस या फ़ोन नंबर हो तो बताएं....और उसे भी याद कराएँ...हर चीज़ यदि ऐसे ही भुला दी जाती तो हम भी आपको कभी का भूल चुक होते...मगर हमारी फितरत शायद ये नहीं...हमें अभी बहुत से काम करने हैं....और हमारे सहयोगियों की लिस्ट में २० साल बाद तक भी आप लोग शामिल हैं.....घबराईये नहीं....हम ऐसा-वैसा कुछ नहीं मांगेंगे आपसे....वैसे हम इन जगहों पर भी पाये जाते हैं....
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