Saturday, December 10, 2011

धूप को बांधने चले तुगलक


इलेक्ट्रॉनिक मीडिया को ज़िम्मेदार बनने की नसीहत और चेतावनी देने के बाद केंद्र सरकार अब साइबर संसार पर नकेल कसने की तैयारी में है। कपिल सिब्बल सार्वजनिक तौर पर कह चुके हैं कि सोशल नेटवर्किंग साइट्स में जितनी गैरज़िम्मेदार और अभद्र सामग्री पोस्ट की जाती है, उसे केंद्र सरकार गवारा नहीं कर सकती। उऩ्होंने फेसबुक, यूट्यूब और गूगल के अधिकारियों को बुलाकर भी समझाया है कि उनकी साइट्स पर कुछ नियंत्रण दिखना चाहिए, वरना सरकार को मजबूर होकर कुछ कदम उठाने होंगे।
ऐसा नहीं है कि फेसबुक या गूगल या फिर यू ट्यूब के संचालकों का अपनी साइट्स पर ज़रा भी नियंत्रण नहीं है। गूगल की तो बाकायदा ट्रांसपरेंसी रिपोर्ट इंटरनेट पर मौजूद है जो बताती है कि दुनिया भर की सरकारें गूगल से सामग्री हटाने का आग्रह करती हैं और 70 फीसदी आग्रहों को गूगल मंज़ूर भी कर लेता है। इसी रिपोर्ट के मुताबिक इस साल जनवरी से जून तक के छह महीनों में भारत से 358 शिकायतें गूगल को भेजी गईं जिनमें आधे से अधिक पर उसने सामग्री हटा ली। गूगल का साफ़ कहना है कि जो सामग्री उसे स्थानीय कानूनों के ख़िलाफ लगती है या फिर जिससे सामुदायिक नफ़रत की बू आती है, उसे वह तत्काल हटाने को तैयार हो जाता है। लेकिन सिर्फ किसी के एतराज पर या सिर्फ भावनाओं को ठेस लगने के आधार पर कोई सामग्री नहीं हटाई जा सकती। दूसरी सोशल नेटवर्किंग साइट्स के भी अपने कायदे और कसौटियां हैं जिनके हिसाब से वे किसी सामग्री को सेंसर कर सकती हैं।
लेकिन इन सबके बावजूद यह साइबर संसार इतना बड़ा है कि वहां कायदे टूटते रहते हैं, जैसे असली दुनिया में टूटते रहते हैं। वहां बहुत सारी चीज़ें ऐसी हो जाती हैं जो किसी को स्वीकार्य नहीं हो सकतीं। राजनीतिक मज़ाक कब वहां फूहड़ और अश्लील पूर्वग्रहों की शक्ल में फूटने लगता है और धार्मिक खुलापन कैसे असहिष्णुता और नफ़रत की अभिव्यक्ति में बदल जाता है, यह पता भी नहीं चलता। इस लिहाज़ से कपिल सिब्बल की आपत्ति एक हद तक जायज है।
लेकिन इस पर रोक लगेगी कैसे? आबादी के हिसाब से यह साइबर दुनिया असली दुनिया को टक्कर देने की हैसियत में है। फेसबुक चीन और भारत के बाद दुनिया का तीसरा सबसे बड़ा देश है जहां 80 करोड़ लोग रहते हैं। इसी तरह ट्विटर पर 30 करोड़ लोग हैं। रोज़ इसे डेढ़ अरब लोग छानते हैं। जिस दिन माइकल जैक्सन की मौत हुई, उस दिन हर घंटे एक लाख ट्वीट किए जाते रहे, जिसके नतीजे में कंपनी का सर्वर बैठ गया। गूगल पर रोज एक अरब सर्च रिक्वेस्ट आती हैं।
इतनी विराट दुनिया पर ऐसा ठोस नियंत्रण वाकई मुमकिन नहीं है कि इसमें कुछ भी अभद्र और अशालीन न हो। दरअसल यह साइबर दुनिया हमारी असली दुनिया का ही विस्तार है जिसमें हमारी अच्छाइयां और गलाजतें उसी तरह दिखती हैं जिस तरह असली दुनिया में। लेकिन इसी से यह तर्क निकलता है कि जिस तरह असली दुनिया को कायदे कानूनों में बांधने की एक तरतीब बनाई गई है, उसी तरह साइबर दुनिया के लिए भी यह कानूनी इंतज़ाम हों।
जाहिर है, दुनिया भर की सरकारें ऐसे इंतज़ाम कर रही हैं। इंटरनेट के बहुत सारे मामले तो मौजूदा कानूनों की जद मे चले ही आते हैं, कुछ के लिए नए कानूनों की ज़रूरत है। लेकिन क्या कपिल सिब्बल और भारत सरकार की चिंता वाकई साइबर संसार को अभद्रता और अशालीनता से बचाने की है? इस साइबर संसार में जो चीज़ सबसे विकृत और डरावने रूप में मौजूद है, वह पोर्नोग्राफी है जिसकी तरह-तरह की किस्में वहां बिन मांगे लोगों तक चली आती हैं। इसके विरुद्ध सरकार ने कभी कोई प्रयत्न किया हो, यह मालूम नहीं। गूगल की ट्रांसपरेंसी रिपोर्ट 6 महीनों की जिन 358 शिकायतों का जिक्र करती है, उनमें से बस 3 पोर्नोग्राफी से जुड़ी हैं और सिर्फ 8 नफ़रत फैलानी वाली अभिव्यक्ति से, जबकि 255 शिकायतों का वास्ता सरकार की आलोचना से है। यानी सरकार को बाकी सब मंज़ूर है, अपनी आलोचना नहीं।
इसलिए यह सिर्फ इत्तिफाक नहीं है कि जिस दौर में सरकार की आलोचना शुरू हुई, उसी दौर में सरकार को टीवी चैनलों से लेकर सोशल नेटवर्किंग कंपनियों तक की गैरज़िम्मेदारी का खयाल आया। अण्णा हज़ारे के आंदोलन के बाद ही सरकार मीडिया की भूमिका पर नाराज़ और इसी दौरान सोशल नेटवर्किंग साइट्स पर अपलोड की गई तस्वीरों को लेकर कपिल सिब्बल ने इन कंपनियों के अधिकारियों से बात की। फिर दुहराने की ज़रूरत है कि ये तस्वीरे वाकई अश्लील और अभद्र थीं और इनमें से कुछ कपिल सिब्बल की भी थीं जिनको लेकर अगर उनमें रंज रहा हो तो वह अस्वाभाविक नहीं। लेकिन अपने निजी रंज को कपिल सिब्बल अगर इंटरनेट के ख़िलाफ़ एक सांस्कृतिक तर्क में बदलने की कोशिश कर रहे हैं तो इस कोशिश के पीछे छुपे पाखंड और इसकी नीयत को ठीक ढंग से समझने की ज़रूरत है।
इन सोशल नेटवर्किंग साइट्स के ख़िलाफ़ अपनी मुहिम के दौरान ही कपिल सिब्बल को याद आ रहा है कि भारत और अमेरिका के सांस्कृतिक पैमाने अलग-अलग हैं और पश्चिम की कसौटियां भारत में नहीं चल सकतीं। दुर्भाग्य से संस्कृति और सुरुचि वह क्षेत्र हैं जहां यह सरकार सबसे कमज़ोर, फिसड्डी, नकलची और आत्महीन साबित हुई है। कपिल सिब्बल भले कविता लिखने के शौकीन हों लेकिन उनमें या इस सरकार के दूसरे मंत्रियों में संस्कृति की बहुत गहरी समझ या उसके प्रति संवेदनशीलता के प्रमाण नहीं मिलते। संस्कृति इस सरकार की- या हमारे पूरे राजनीतिक तंत्र की- प्राथमिकता सूची में कहीं नहीं है- यह बात हमारे सांस्कृतिक संस्थानों या सम्मानों के प्रति सरकार का नजरिया देखकर बार-बार साबित होती रही है। संगीत, कला, कविता या भाषा हमारे सांस्कृतिक मानस को गढ़ती भी है, वह एक नागरिक के रूप में हमारी संवेदनशीलता का विस्तार कर सकती है, यह बात जैसे हमारे नेताओं को समझ में नहीं आती। संस्कृति उनके लिए बस एक उपादान है, एक सजावटी सामान, जिसका वे इस्तेमाल भर करते हैं। यह कवि नहीं, मंत्री होने का प्रताप है कि कपिल सिब्बल की कविताएं अंग्रेजी मे छप भी गईं और उनका हिंदी में अनुवाद भी हो गया।
सच तो यह है कि हमारी पूरी आर्थिक और राजनीतिक वैचारिकी भयानक पश्चिमपरस्ती की मारी है और सत्ता की पिछलग्गू संस्कृति भी उसी रास्ते चलती रही है। ऐसे में कपिल सिब्बल जैसा कोई नेता पूरब और पश्चिम की सांस्कृतिक कसौटियों की बात करे तो बात ठीक होते हुए भी खोखली और सतही जान पड़ती है। पश्चिम से पूरी तरह आक्रांत और अभिभूत जीवन शैली चलेगी, लेकिन उसके मूल्यों के साथ चलने वाला इंटरनेट नहीं चलेगा, यह खोटा तर्क सरकार की खोटी नीयत का आईना भर है।
कपिल सिब्बल कहते हैं कि सरकार सेंसरशिप के पक्ष में नहीं है। हकीकत यह है कि सेंसरशिप लादे बिना ही अभिव्यक्ति के छोटे-बड़े माध्यमों को सरकार जिस तरह काबू में करने की कोशिश करती रही है, जिस तरह स्वतंत्र और असहमत आवाज़ों को वह दबाती और दंडित करती रही है, सामाजिक कार्यकर्ताओं को आतंकवादी बताकर जेलों में ठूंसती रही है, उससे स्पष्ट है कि वह चीजें तो अपनी मुट्ठी में रखना चाहती है, लेकिन इस मुट्ठी में इतना दम नहीं पाती कि सीधे यह बात कह सके। यह अपने खोखलेपन को पहचानने वाली सरकार की विनयशील मुद्रा है जिसके झांसे में हमें नहीं आना चाहिए।
निश्चय ही इंटरनेट या सोशल नेटवर्किंग साइट्स से जुड़े कई जायज़ सांस्कृतिक और सामाजिक संकट हैं जिनपर अलग से विचार करने की ज़रूरत है। लेकिन इऩकी आड़ में घुसपैठ करने वाली सरकार दरअसल अपने संकटों का हल चाहती है, हमारे संकटों का नहीं।
जहां तक इन पर पर पाबंदी का सवाल है, एक क्षणिका याद आती है जो तीन दशक पहले बिहार में जगन्नाथ मिश्र द्वारा लाए गए प्रेस बिल की प्रतिक्रिया में सूर्यभानु गुप्त ने लिखी थी- करते हैं कमाल फ़ैसले तुगलक / बांधना था तो बांधते दरिया / धूप को बांधने चले तुगलक।

Sunday, October 23, 2011

संघ राम की अंगूठी नहीं पहचानता


राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को पता नहींअपने एक नेताहरबंस लाल ओबेरॉय की अब याद होगी या नहीं। उन्होंने एक बहुत महत्त्वपूर्ण काम किया था- उन्होंने दुनिया भर से रामकथाओं से जुड़ी तस्वीरों और पोस्टरों का संग्रह इकट्ठा किया था। वे उनकी प्रदर्शनी भी लगाया करते थे। इन्हीं प्रदर्शनियों की मार्फत हमें पहली बार यह बात समझ में आई कि रामकथा कोई एक कथा नहीं हैराम की कई कथाएं हैं जो एक-दूसरे से कहीं-कहीं नितांत भिन्न भी हैं। उन्हीं दिनों यह समझ भी बनी कि राम की स्मृति का वितान इस देश में बहुत बड़ा है। रामकथा सिर्फ वाल्मीकि या तुलसी ने नहीं लिखी हैऔर भी कई-कई लोगों ने कई-कई भाषाओं में लिखी हैऔर यह कहानी जितनी लिखी जाती रही हैउससे ज़्यादा कही जाती रही है। यही नहींयह कहानी जितनी बार लिखी और कही गईउतनी बार बदलती भी रही। रामलक्ष्मण और सीता के सिर्फ़ किरदार ही नहीं बदले हैंउनके आपसी रिश्ते भी बदले हुए हैं। कुल मिलाकर रामकथा लोकस्मृतियों में कई रूपों में मौजूद है- बताती हुई कि ढाई हज़ार वर्षों के दौरान भारतीय मानस पर उसकी छाप कितनी गहरी पड़ी है- सबके अपने-अपने राम हैंसबकी अपनी-अपनी रामकथा है।

हरबंसलाल ओबेरॉय की तस्वीरों का वह संग्रहअब पता नहीं कहां है और किस हाल में है। एक बात साफ़ है कि संघ में दीक्षित होने के बावजूद हरबंस लाल ओबेरॉय के भीतर वह धार्मिक इकहरापन नहीं रहा होगा जो उन्हें राम के एक ही रूप की अभ्यर्थना के लिए मजबूर करता। यह भी संभव है कि हिंदुत्व के इकहरे प्रतिमानों में फंसा संघ ख़ुद भी उस मिथक संसार की जटिलता समझने में नाकाम रहा हो जिससे उसकी अपनी विचारधारा को चुनौती मिलती। शायद यह अस्सी के दशक में छेड़ा गया राम मंदिर आंदोलन था जिसने पहली बार संघ परिवारियों का ध्यान इस तरफ खींचा कि न हिंदुत्व के बहुत सारे संस्करण होने चाहिए और न ही राम की बहुत सारी छवियां होनी चाहिए- बस एक ही हिंदुत्व और एक ही राम चाहिए जिसे अपनी राजनीतिक ज़रूरत के हिसाब से युद्धभूमि में उतारा जा सके।

इत्तिफाक से 1987 मेंजब संघ परिवारी राम की एक ऐसी योद्धा छवि बनाने और अपने इकलौते मंदिर के लिए रामनामी ईंटे जुटाने में लगे थेतभी लेखक और विद्वान एके रामानुजन का लेख, ‘थ्री हंड्रेड रामायंसफाइव एग्जैम्पल्स ऐंड थ्री थॉट्स ऑन ट्रांसलेशन पहली बार सामने आया। स्मृतिजनश्रुतिइतिहासमिथक और चेतना को एक साथ समायोजित करतारामकथा की लिखित और वाचिक परंपराओं को टेलिंग यानी किस्सागोई की तरह देखता यह अनूठा लेख बताता है कि राम कितने बड़े हैं, कितनी तरह के हैं और कितने आयामों और युगों में फैले हैं। इस लेख को पहली बार पढ़ते हुए मुझे हरबंसलाल ओबेरॉय याद आए जिनके पास भी राम की कई छवियां थीं और एक छवि उस कथा की भी थी जिसमें राम-सीता भाई-बहन बताए गए थे।

इस लेख की खूबी यही नहीं है कि इससे हमें रामकथा के विविध रूपों की जानकारी मिलती हैबल्कि यह भी थी कि इससे इतिहास और परंपरा के बारे में हमारी दृष्टि कुछ साफ होती है। इसे उचित हीदिल्ली विश्वविद्यालय के बीएइतिहास के पाठ्यक्रम में शामिल किया गया। लेकिन 2008 में संघ परिवार से जुड़े संगठनों ने इस नितांत सहिष्णुतापूर्ण लेख पर भी एतराज और हंगामा किया जिसके बाद सुप्रीम कोर्ट ने दिल्ली विश्वविद्यालय से इस लेख पर राय मांगी। दिल्ली विश्वविद्यालय ने इस पर चार विशेषज्ञों की कमेटी बनाई जिनमें से तीन ने साफ तौर पर इस लेख को बेहद महत्त्वपूर्ण बताते हुए पाठ्यक्रम के लिहाज़ से भी ज़रूरी बताया। सिर्फ चौथे विद्वान की इस पर असहमति थी। कायदे से इस पर बहुमत से फ़ैसला होना चाहिए थालेकिन हुआ नहीं। एकैडमिक काउंसिल ने लेख के ख़िलाफ़ फ़ैसला लिया। एकैडमिक काउंसिल के सिर्फ नौ सदस्य इस लेख के पक्ष में खड़े हुएबाकी या तो ख़िलाफ़ दिखे या फिर खामोशइस मासूम से लगने वाले बहाने के साथ कि इस राजनीति में उन्हें नहीं पड़ना है। इस तरह एक बहुत ही समृद्ध, शोधपूर्ण, बहुलतावादी और अपनी प्रकृति में नितांत समन्वयकारी पाठ दिल्ली विश्वविद्यालय के लिए अस्पृश्य हो गया।

यह शर्मनाक है और डरावना भी। यह हमारे समय और समाज में बढ़ रही अपढ़ता और असहिष्णुता दोनों का सूचक है। इसमें शक नहीं कि रामानुजन के लेख का विरोध करने वाले ज्यादातर लोगों ने वह लेख पढ़ा ही नहीं होगा। वह सलमान रुश्दी की रचनाओं की तरह किसी मान्यता को चिढ़ाने वाला लेख नहीं है और न ही तसलीमा नसरीन के लेखों की तरह किसी आक्रोश से भरा हुआ, वह बस एक सुंदर और सहिष्णु लेख है जिसे बहुत मेहनत और शोध से तैयार किया गया और जिसे पढ़ते हुए रामकथा या रामकथाओं की विराटता के प्रति सम्मान ही पैदा होता है। लेकिन खुद को रामभक्त और संस्कृति का पहरेदार बताने वाली ताकतों को ऐसे राम नहीं चाहिए क्योंकि वे उनकी क्षुद्र राजनीति के दायरे में समाते नहीं। हरबंसलाल ओबेराय आज इस अगर इस संघ परिवार में बचे होते तो ख़ुद को एकाकी और कई तरह के हमलों के बीच असुरक्षित पाते।  

यह रामानुजन प्रसंग इस बात की नए सिरे से पुष्टि है कि विचार और अभिव्यक्ति की जो बुनियादी स्वतंत्रता है, उस पर हमले तीखे हुए हैं। असहिष्णु ताकतें अपना दाय़रा लगातार बढ़ा रही हैं और इसकी जद में आकर वे सारे उदार-अनुदार, सायास-अनायास पाठ कुचले जा रहे हैं जो उनकी विचारधारा से मेल नहीं खाते। रामानुजन का लेख इसकी ताज़ा कड़ी भर है। ऐसी ही ताकतों के दबाव में इसके पहले मुंबई विश्वविद्यालय से रोहिंटन मिस्त्री के उपन्यास सच अ लांग जर्नी को हटाया गया। यही वे लोग हैं जिन्होंने मक़बूल फिदा हुसेन जैसे गंगा-जमनी ही नहीं, कई और रंगों और परंपराओं की तूलिका साधने वाले कलाकार की पेंटिंग्स जलाईं और आखिरकार 90 पार की उम्र में उन्हें देश से बाहर रहने और वहीं मरने पर मजबूर किया। इन्हीं लोगों ने एक दौर में हबीब तनवीर के नाटकों पर हमले किए। यही लोग कश्मीर पर अलग राय रखने की वजह से प्रशांत भूषण के साथ हाथापाई करते हैं और अंत में ऐसे ही लोग दिल्ली विश्वविद्यालय में एके रामानुजन का लेख हटाए जाने के विरोध में प्रदर्शन कर रहे लोगों को धमकी भी देते हैं कि उनसे अपने ढंग से निबटा जाएगा।

यह एक ख़तरनाक चलन है जो पूरे समाज पर अपनी तरह का सतहीपन लादना चाहता है। कविता, कहानी, लेख, विचार और शोध में उसे वही मंज़ूर है जिससे सपाट, अप्राश्नेय और अतार्किक किस्म की दक्षिणपंथी मूल्य संहिता की पुष्टि होती हो। सौंदर्य, सरोकार और बहुलता जैसे इसके लिए अजनबी शब्द हैं।

एके रामानुजन का लेख हनुमान की कहानी से शुरू होता है जो राम की खोई हुई अंगूठी खोजने निकले हैं। पाताल का राजा एक थाली में ढेर सारी अंगूठियां लेकर आता है और कहता है कि हनुमान अपने राम की अंगूठी खोज लें। हनुमान यह देखकर हैरान हैं कि सारी अंगूठियां राम की हैं। पाताल लोक का राजा बताता है कि वाकई जितनी अंगुठियां हैं, उतने राम हुए हैं। जब वह अपना समय पूरा कर लेते हैं तो उनकी अंगूठी उनके हाथ से निकल कर पाताल में पहुंच जाती है जिसे वह संभाल कर रख लेता है। इसके बाद दूसरे राम आते हैं और दूसरी अंगूठी आती है।

लेकिन संघ परिवार को राम की यह न ख़त्म होने वाली परंपरा मंज़ूर नहीं। वह अपने एक राम के पीछे पड़ा है और उसकी अंगूठी भी ठीक से पहचान नहीं पा रहा है। वह जैसे सारी अंगूठियां छीन कर छुपा लेना चाहता है। वह राम को लोकस्मृति और परंपरा की ज़मीन से उठाकर अपनी विचारधारा के दुर्ग में कैद करना चाहता है। लेकिन इससे राम दूर चले जाते हैं। डर बस इतना है कि वे इतने दूर न चले जाएं कि फिर लौट कर आ भी न सकें। अगर हम चाहते हैं कि राम लौटें तो हमें पहले रामानुजन को लौटाना होगा।