Friday, June 5, 2015

खाते-पीते हिंदुस्तान में खाने-पीने का संकट
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जो लोग मैगी खाना बंद कर देंगे वे क्या खाएंगे? जाहिर है, किसी दूसरे नाम से बिकने वाला कोई दूसरा नूडल जिसमें छुपे ख़तरों से वे वैसे ही बेख़बर होंगे जैसे मैगी से रहे। लेकिन क्या वाकई मैगी इतनी ख़तरनाक है या वाकई हमें मैगी में छुपे ख़तरों का कुछ भी पता नहीं था?

खानपान के तमाम जानकारों, जीवन शैली के तमाम विशेषज्ञों और डॉक्टरों के लगातार समझाने और चेतावनी देने के बावजूद पिछले कुछ वर्षों में जंक फूड हमारे ब्रंच, लंच या डिनर का हिस्सा होते चले गए हैं। खाता-पीता हिंदुस्तान इन दिनों पहले दौड़ता-भागता हिंदुस्तान है और उसके बाद फिर बीमार पड़ता हिंदुस्तान। औरतों से रसोई छूटी है और मर्दों को अब भी रसोई में जाना अपनी हेठी लगता है। बच्चे तरह-तरह के चिप्स, कुरकुरे-मुरमुरे चबाने से लेकर तरह-तरह के नूडल पकाना सीख गए हैं और आत्मनिर्भर मां-बाप की आत्मनिर्भर संतानें हैं।

देश के तमाम शहरों में रोशनी से दमकते जो हिस्से हैं वहां मॉल के भीतर फूड कोर्ट्स या तरह-तरह के रेस्तरां हैं जहां देसी-विदेशी हर तरह का व्यंजन अपनी मूल क़ीमत से कई गुना दाम पर बेचा-खरीदा और खाया जाता है। तरह-तरह के चाट-पकौड़ों और मिठाई-खोमचे वालों से लेकर मझोले मिष्टान्न भंडारों तक और बड़े-बड़े चेन से लेकर मैकडॉनल्ड, केएफसी, पिज्जा हट, डॉमिनोज और किंग हैं जहां जाना और खाना सेहत से ज़्यादा शान का सबूत है, अपनी आर्थिक हैसियत से उपजे संतोष की पहचान है।

पचास साल पुराना गंवई हिंदुस्तान दूध पीता था, 40 बरस पहले उसने चाय पीनी सीखी, 30 बरस पहले कोल्ड ड्रिंक्स को पहचानना सीखा, 20 बरस पहले चाइनीज़ चाउमीन आई, और दस बरस पहले मोमो और पिज्जा चले आए। संस्कृति में खानपान वो चीज़ है जो कपड़ों के फैशन के बाद सबसे तेज़ी से बदलती है।
ये बदलाव सिर्फ इसलिए नहीं होता कि स्वाद के कुछ व्यापारी चले आते हैं और अपनी चाट निकाल कर हमें उसका जायका लगा जाते हैं। दरअसल इसके पीछे बदलती दुनिया की मजबूरियां भी होती हैं। इस बदली हुई दुनिया में सेहत अब अपनी सावधानी का नहीं, डॉक्टरों की सलाह और दवाओं का मामला है। इस हांफती-भागती दुनिया में जंक फूड और इंस्टेंट एनर्जी देने वाले ड्रिंक्स वो सहारा हैं जो हमें चलाए रखते हैं।

ऐसे में मैगी या किसी और नूडल या सेमी कूक्ड पैक्ड खाने में जो ख़तरे होते हैं, उन्हें हम सब नज़रअंदाज़ करते हैं। अचानक मैगी को लेकर एक ख़बर चली आती है और सब कुछ इस तरह हैरान होते हैं जैसे ये तो उन्हें मालूम ही नहीं था। ये ख़ुद को भरम में रखने वाली दुनिया का भरम है- जिसके भीतर अब भी एक झीना सा ये यकीन बचा हुआ है कि मैगी आख़िर सारी जांच में पाक-साफ निकलेगी और उसे दो मिनट में पकाकर फिर हम काम पर जा सकेंगे।

Friday, August 31, 2012

सरकार नहीं अख़बार चाहिए


पिछले दिनों बर्मा ने अपने यहां प्रेस पर 48 साल से चली आ रही सेंसरशिप ख़त्म करने की घोषणा की। इसी दौरान इक्वाडोर ने विकीलीक्स के संस्थापक जूलियन असांज को राजनीतिक शरण देने का फ़ैसला किया। बर्मा और इक्वाडोर ऐसे देश नहीं हैं जो अभिव्यक्ति की आज़ादी का सम्मान करने के लिए जाने जाते रहे हों। लेकिन अगर बर्मा के शासक भी अपने यहां खुली ख़बरों की ज़रूरत महसूस कर रहे हैं और अगर इक्वाडोर भी जूलियन असांज जैसी शख्सियत से इस तरह मोहित है कि उसने कई देशों से दुश्मनी लेने का ख़तरा मोल लेते हुए उन्हें राजनीतिक शरण दी है तो इसीलिए कि धीरे-धीरे यह समझ हर जगह बन रही है कि अभिव्यक्ति की आज़ादी कई दूसरी चीज़ों के मुक़ाबले कहीं ज़्यादा ज़रूरी है।
लेकिन जब दुनिया भर में अभिव्यक्ति की आज़ादी नए क्षेत्रों में दाखिल हो रही है, तब हमारे यहां सरकार उन वेबसाइट्स और सोशल साइट्स के खातों की फेहरिस्त बना रही है जिन पर पाबंदी लगाई जानी है। निस्संदेह असम की हिंसा के पीछे कुछ वेबसाइट्स और कुछ सोशल साइट्स से जुड़े खातों की ग़ैरज़िम्मेदार ही नहीं, बदनीयत भूमिका भी रही है और सरकार की यह बात भी मान लेते हैं कि इनमें कुछ का संचालन सीमा पार से भी हो रहा था। लेकिन अगर सरकार यह मानने या समझाने में लगी है कि असम की हिंसा और बाद में महाराष्ट्र से लेकर कर्नाटक तक की दक्षिणी पश्चिमी पट्टी से रातों-रात पूर्वोत्तर के लोगों के पलायन के पीछे सिर्फ सोशल वेबसाइट्स का खड़ा किया गया हंगामा है, तो या तो वह ख़ुद को ज़्यादा चालाक या फिर लोगों को ज़्यादा नादान समझ रही है। असम में हिंसा और विस्थापन हो या दक्षिणी राज्यों से लोगों का पलायन- इन सबके बीज दरअसल हमारे समाज में बढ़ती सांप्रदायिकता और कुछ समूहों के प्रति लगातार बढ़ाए जा रहे नस्ली परायेपन के एहसास में है। इन मूल कारणों से आंख मिलाने और इनकी काट ढूढ़ने की जगह सरकार सीमा पार की वेबसाइट्स ढूढ़ रही है।
निस्संदेह हम सब अपने अनुभव से जानते हैं कि बहुत सारे सांप्रदायिक तत्व और संगठन सोशल साइट्स का इस्तेमाल अफवाह और नफ़रत फैलाने से लेकर लेखकों को डराने-दबाने के लिए भी कर रहे हैं। फेसबुक पर ऐसे कई कमेंट और टैग मिल जाते हैं जो बिल्कुल खौलती हुई नफ़रत की भाषा बोलते हैं, तर्कातीत और भावुक ढंग से राष्ट्र और धर्म पर बहस करते हैं और लोगों को सबक सिखाने, उनसे बदला लेने और उन्हें उनकी औकात बता देने तक की हुंकार भरते हैं। ऐसे लोगों की शिनाख्त भी ज़रूरी है और उनसे वैचारिक मुठभेड़ भी। लेकिन वे फेसबुक पर इसलिए हैं कि हमारे समाज में हैं, और समाज में भी बिल्कुल कहीं साथ-साथ हैं, वरना जिस फेसबुक पर आप अपनी मर्जी से अपना मित्र पड़ोस बसाते हैं, वहां ये लोग कैसे चले आते?
जाहिर है, सरकार इस समाज की विडंबना को नहीं देख रही, उसका सच बता रही सोशल साइट्स को देख रही है। कहीं इसलिए तो नहीं कि वह दरअसल अपने समाज के असामाजिक और सांप्रदायिक तत्वों से नहीं, बल्कि अभिव्यक्ति के उन माध्यमों से लड़ना चाह रही है जो उसके लिए असुविधाजनक हैं? वरना एक साथ तीन सौ से ज़्यादा वेबसाइट्स और ट्विटर अकाउंट बंद करने का आग्रह वह क्यों करती? वह भी तब, जब इनके विरुद्ध शिकायत करने और ऐसी आपत्तिजनक सामग्री हटवाने के विकल्प उसके पास पहले से सुलभ हैं और इनका वह भरपूर इस्तेमाल करती रही है? इसका एक प्रमाण यह है कि सरकार की फेहरिस्त में ऐसी साइट्स और उन अकाउंट्स के नाम भी हैं जहां से उस पर कभी व्यंग्य में और कभी सीधे हमले होते हैं, कभी उसका मज़ाक बनाया जाता है और कभी उसका कार्टून दिखाई पड़ता है।
इसमें ज़रा भी शक नहीं कि सोशल साइट्स का संसार- या पूरा का पूरा नेट संसार- ऐसी आपत्तिजनक सामग्री से पटा पड़ा है जो सतही है, बदनीयत है, अश्लील है और ख़तरनाक भी है और जिसे रोकने, जिस पर नियंत्रण रखने की ज़रूरत है। लेकिन यह आभासी संसार हमारे असली संसार ने ही बनाया है-इस संसार को ऐसी सामग्री के प्रति ज़्यादा संवेदनशील बनाकर ही हम इसकी काट खोज सकते हैं। लेकिन इसकी जगह फेसबुक या ट्विटर या दूसरे माध्यमों या इनसे जुड़े खातों पर बहुत सपाट किस्म की पाबंदी बेमानी साबित होगी- बल्कि यह एक ख़तरनाक चलन को जन्म देगी, जब हर किसी बड़े हादसे के बाद सरकारी तंत्र नई वेबसाइट्स, नए अकाउंट खोजने में लग जाएगा जिन्हें प्रतिबंधित किया जाए- और बहुत संभव है, तब भी इसके स्रोत सीमा पार ही खोज निकालेगा। यह अनायास नहीं है कि असम के 4 लाख से ज़्यादा बेघर बताए जा रहे लोगों के पुनर्वास या महाराष्ट्र, कर्नाटक और आंध्र प्रदेश से हज़ारों लोगों के पलायन का सवाल पीछे छूट गया है, सोशल साइट्स पर पाबंदी की ख़बर बड़ी हो गई है। साफ तौर पर ये दोनों सिरे वास्तविक लोकतंत्र के प्रति हमारे राजनीतिक तबकों की उदासीनता से ही जुड़ते हैं- न वे लोगों को न्याय दे पा रहे हैं और अपने अन्याय पर दूसरों की टिप्पणी सहन पा रहे हैं।
अमेरिका के तीसरे राष्ट्रपति और अमेरिका के संविधान निर्माताओं में एक थॉमस जेफ़रसन ने सवा दो सौ साल पहले लिखा था, अगर मुझे तय करना पड़े कि हमें सरकार चाहिए या अखबार तो मुझे अख़बार चुनने में एक लम्हे की भी हिचक नहीं होगी।
इसलिए कि थॉमस जेफ़रसन यह बात समझते थे कि लोकतंत्र को चलाने का काम भले सरकारें करती हों, उसे बचाए रखने का काम अख़बार ही करते हैं। हमें भी यह बात समझनी होगी और असम की हिंसा के नाम पर अभिव्यक्ति की आज़ादी को सीमित करने वाले प्रयत्नों का प्रतिरोध करना होगा।

Saturday, December 10, 2011

धूप को बांधने चले तुगलक


इलेक्ट्रॉनिक मीडिया को ज़िम्मेदार बनने की नसीहत और चेतावनी देने के बाद केंद्र सरकार अब साइबर संसार पर नकेल कसने की तैयारी में है। कपिल सिब्बल सार्वजनिक तौर पर कह चुके हैं कि सोशल नेटवर्किंग साइट्स में जितनी गैरज़िम्मेदार और अभद्र सामग्री पोस्ट की जाती है, उसे केंद्र सरकार गवारा नहीं कर सकती। उऩ्होंने फेसबुक, यूट्यूब और गूगल के अधिकारियों को बुलाकर भी समझाया है कि उनकी साइट्स पर कुछ नियंत्रण दिखना चाहिए, वरना सरकार को मजबूर होकर कुछ कदम उठाने होंगे।
ऐसा नहीं है कि फेसबुक या गूगल या फिर यू ट्यूब के संचालकों का अपनी साइट्स पर ज़रा भी नियंत्रण नहीं है। गूगल की तो बाकायदा ट्रांसपरेंसी रिपोर्ट इंटरनेट पर मौजूद है जो बताती है कि दुनिया भर की सरकारें गूगल से सामग्री हटाने का आग्रह करती हैं और 70 फीसदी आग्रहों को गूगल मंज़ूर भी कर लेता है। इसी रिपोर्ट के मुताबिक इस साल जनवरी से जून तक के छह महीनों में भारत से 358 शिकायतें गूगल को भेजी गईं जिनमें आधे से अधिक पर उसने सामग्री हटा ली। गूगल का साफ़ कहना है कि जो सामग्री उसे स्थानीय कानूनों के ख़िलाफ लगती है या फिर जिससे सामुदायिक नफ़रत की बू आती है, उसे वह तत्काल हटाने को तैयार हो जाता है। लेकिन सिर्फ किसी के एतराज पर या सिर्फ भावनाओं को ठेस लगने के आधार पर कोई सामग्री नहीं हटाई जा सकती। दूसरी सोशल नेटवर्किंग साइट्स के भी अपने कायदे और कसौटियां हैं जिनके हिसाब से वे किसी सामग्री को सेंसर कर सकती हैं।
लेकिन इन सबके बावजूद यह साइबर संसार इतना बड़ा है कि वहां कायदे टूटते रहते हैं, जैसे असली दुनिया में टूटते रहते हैं। वहां बहुत सारी चीज़ें ऐसी हो जाती हैं जो किसी को स्वीकार्य नहीं हो सकतीं। राजनीतिक मज़ाक कब वहां फूहड़ और अश्लील पूर्वग्रहों की शक्ल में फूटने लगता है और धार्मिक खुलापन कैसे असहिष्णुता और नफ़रत की अभिव्यक्ति में बदल जाता है, यह पता भी नहीं चलता। इस लिहाज़ से कपिल सिब्बल की आपत्ति एक हद तक जायज है।
लेकिन इस पर रोक लगेगी कैसे? आबादी के हिसाब से यह साइबर दुनिया असली दुनिया को टक्कर देने की हैसियत में है। फेसबुक चीन और भारत के बाद दुनिया का तीसरा सबसे बड़ा देश है जहां 80 करोड़ लोग रहते हैं। इसी तरह ट्विटर पर 30 करोड़ लोग हैं। रोज़ इसे डेढ़ अरब लोग छानते हैं। जिस दिन माइकल जैक्सन की मौत हुई, उस दिन हर घंटे एक लाख ट्वीट किए जाते रहे, जिसके नतीजे में कंपनी का सर्वर बैठ गया। गूगल पर रोज एक अरब सर्च रिक्वेस्ट आती हैं।
इतनी विराट दुनिया पर ऐसा ठोस नियंत्रण वाकई मुमकिन नहीं है कि इसमें कुछ भी अभद्र और अशालीन न हो। दरअसल यह साइबर दुनिया हमारी असली दुनिया का ही विस्तार है जिसमें हमारी अच्छाइयां और गलाजतें उसी तरह दिखती हैं जिस तरह असली दुनिया में। लेकिन इसी से यह तर्क निकलता है कि जिस तरह असली दुनिया को कायदे कानूनों में बांधने की एक तरतीब बनाई गई है, उसी तरह साइबर दुनिया के लिए भी यह कानूनी इंतज़ाम हों।
जाहिर है, दुनिया भर की सरकारें ऐसे इंतज़ाम कर रही हैं। इंटरनेट के बहुत सारे मामले तो मौजूदा कानूनों की जद मे चले ही आते हैं, कुछ के लिए नए कानूनों की ज़रूरत है। लेकिन क्या कपिल सिब्बल और भारत सरकार की चिंता वाकई साइबर संसार को अभद्रता और अशालीनता से बचाने की है? इस साइबर संसार में जो चीज़ सबसे विकृत और डरावने रूप में मौजूद है, वह पोर्नोग्राफी है जिसकी तरह-तरह की किस्में वहां बिन मांगे लोगों तक चली आती हैं। इसके विरुद्ध सरकार ने कभी कोई प्रयत्न किया हो, यह मालूम नहीं। गूगल की ट्रांसपरेंसी रिपोर्ट 6 महीनों की जिन 358 शिकायतों का जिक्र करती है, उनमें से बस 3 पोर्नोग्राफी से जुड़ी हैं और सिर्फ 8 नफ़रत फैलानी वाली अभिव्यक्ति से, जबकि 255 शिकायतों का वास्ता सरकार की आलोचना से है। यानी सरकार को बाकी सब मंज़ूर है, अपनी आलोचना नहीं।
इसलिए यह सिर्फ इत्तिफाक नहीं है कि जिस दौर में सरकार की आलोचना शुरू हुई, उसी दौर में सरकार को टीवी चैनलों से लेकर सोशल नेटवर्किंग कंपनियों तक की गैरज़िम्मेदारी का खयाल आया। अण्णा हज़ारे के आंदोलन के बाद ही सरकार मीडिया की भूमिका पर नाराज़ और इसी दौरान सोशल नेटवर्किंग साइट्स पर अपलोड की गई तस्वीरों को लेकर कपिल सिब्बल ने इन कंपनियों के अधिकारियों से बात की। फिर दुहराने की ज़रूरत है कि ये तस्वीरे वाकई अश्लील और अभद्र थीं और इनमें से कुछ कपिल सिब्बल की भी थीं जिनको लेकर अगर उनमें रंज रहा हो तो वह अस्वाभाविक नहीं। लेकिन अपने निजी रंज को कपिल सिब्बल अगर इंटरनेट के ख़िलाफ़ एक सांस्कृतिक तर्क में बदलने की कोशिश कर रहे हैं तो इस कोशिश के पीछे छुपे पाखंड और इसकी नीयत को ठीक ढंग से समझने की ज़रूरत है।
इन सोशल नेटवर्किंग साइट्स के ख़िलाफ़ अपनी मुहिम के दौरान ही कपिल सिब्बल को याद आ रहा है कि भारत और अमेरिका के सांस्कृतिक पैमाने अलग-अलग हैं और पश्चिम की कसौटियां भारत में नहीं चल सकतीं। दुर्भाग्य से संस्कृति और सुरुचि वह क्षेत्र हैं जहां यह सरकार सबसे कमज़ोर, फिसड्डी, नकलची और आत्महीन साबित हुई है। कपिल सिब्बल भले कविता लिखने के शौकीन हों लेकिन उनमें या इस सरकार के दूसरे मंत्रियों में संस्कृति की बहुत गहरी समझ या उसके प्रति संवेदनशीलता के प्रमाण नहीं मिलते। संस्कृति इस सरकार की- या हमारे पूरे राजनीतिक तंत्र की- प्राथमिकता सूची में कहीं नहीं है- यह बात हमारे सांस्कृतिक संस्थानों या सम्मानों के प्रति सरकार का नजरिया देखकर बार-बार साबित होती रही है। संगीत, कला, कविता या भाषा हमारे सांस्कृतिक मानस को गढ़ती भी है, वह एक नागरिक के रूप में हमारी संवेदनशीलता का विस्तार कर सकती है, यह बात जैसे हमारे नेताओं को समझ में नहीं आती। संस्कृति उनके लिए बस एक उपादान है, एक सजावटी सामान, जिसका वे इस्तेमाल भर करते हैं। यह कवि नहीं, मंत्री होने का प्रताप है कि कपिल सिब्बल की कविताएं अंग्रेजी मे छप भी गईं और उनका हिंदी में अनुवाद भी हो गया।
सच तो यह है कि हमारी पूरी आर्थिक और राजनीतिक वैचारिकी भयानक पश्चिमपरस्ती की मारी है और सत्ता की पिछलग्गू संस्कृति भी उसी रास्ते चलती रही है। ऐसे में कपिल सिब्बल जैसा कोई नेता पूरब और पश्चिम की सांस्कृतिक कसौटियों की बात करे तो बात ठीक होते हुए भी खोखली और सतही जान पड़ती है। पश्चिम से पूरी तरह आक्रांत और अभिभूत जीवन शैली चलेगी, लेकिन उसके मूल्यों के साथ चलने वाला इंटरनेट नहीं चलेगा, यह खोटा तर्क सरकार की खोटी नीयत का आईना भर है।
कपिल सिब्बल कहते हैं कि सरकार सेंसरशिप के पक्ष में नहीं है। हकीकत यह है कि सेंसरशिप लादे बिना ही अभिव्यक्ति के छोटे-बड़े माध्यमों को सरकार जिस तरह काबू में करने की कोशिश करती रही है, जिस तरह स्वतंत्र और असहमत आवाज़ों को वह दबाती और दंडित करती रही है, सामाजिक कार्यकर्ताओं को आतंकवादी बताकर जेलों में ठूंसती रही है, उससे स्पष्ट है कि वह चीजें तो अपनी मुट्ठी में रखना चाहती है, लेकिन इस मुट्ठी में इतना दम नहीं पाती कि सीधे यह बात कह सके। यह अपने खोखलेपन को पहचानने वाली सरकार की विनयशील मुद्रा है जिसके झांसे में हमें नहीं आना चाहिए।
निश्चय ही इंटरनेट या सोशल नेटवर्किंग साइट्स से जुड़े कई जायज़ सांस्कृतिक और सामाजिक संकट हैं जिनपर अलग से विचार करने की ज़रूरत है। लेकिन इऩकी आड़ में घुसपैठ करने वाली सरकार दरअसल अपने संकटों का हल चाहती है, हमारे संकटों का नहीं।
जहां तक इन पर पर पाबंदी का सवाल है, एक क्षणिका याद आती है जो तीन दशक पहले बिहार में जगन्नाथ मिश्र द्वारा लाए गए प्रेस बिल की प्रतिक्रिया में सूर्यभानु गुप्त ने लिखी थी- करते हैं कमाल फ़ैसले तुगलक / बांधना था तो बांधते दरिया / धूप को बांधने चले तुगलक।

Sunday, October 23, 2011

संघ राम की अंगूठी नहीं पहचानता


राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को पता नहींअपने एक नेताहरबंस लाल ओबेरॉय की अब याद होगी या नहीं। उन्होंने एक बहुत महत्त्वपूर्ण काम किया था- उन्होंने दुनिया भर से रामकथाओं से जुड़ी तस्वीरों और पोस्टरों का संग्रह इकट्ठा किया था। वे उनकी प्रदर्शनी भी लगाया करते थे। इन्हीं प्रदर्शनियों की मार्फत हमें पहली बार यह बात समझ में आई कि रामकथा कोई एक कथा नहीं हैराम की कई कथाएं हैं जो एक-दूसरे से कहीं-कहीं नितांत भिन्न भी हैं। उन्हीं दिनों यह समझ भी बनी कि राम की स्मृति का वितान इस देश में बहुत बड़ा है। रामकथा सिर्फ वाल्मीकि या तुलसी ने नहीं लिखी हैऔर भी कई-कई लोगों ने कई-कई भाषाओं में लिखी हैऔर यह कहानी जितनी लिखी जाती रही हैउससे ज़्यादा कही जाती रही है। यही नहींयह कहानी जितनी बार लिखी और कही गईउतनी बार बदलती भी रही। रामलक्ष्मण और सीता के सिर्फ़ किरदार ही नहीं बदले हैंउनके आपसी रिश्ते भी बदले हुए हैं। कुल मिलाकर रामकथा लोकस्मृतियों में कई रूपों में मौजूद है- बताती हुई कि ढाई हज़ार वर्षों के दौरान भारतीय मानस पर उसकी छाप कितनी गहरी पड़ी है- सबके अपने-अपने राम हैंसबकी अपनी-अपनी रामकथा है।

हरबंसलाल ओबेरॉय की तस्वीरों का वह संग्रहअब पता नहीं कहां है और किस हाल में है। एक बात साफ़ है कि संघ में दीक्षित होने के बावजूद हरबंस लाल ओबेरॉय के भीतर वह धार्मिक इकहरापन नहीं रहा होगा जो उन्हें राम के एक ही रूप की अभ्यर्थना के लिए मजबूर करता। यह भी संभव है कि हिंदुत्व के इकहरे प्रतिमानों में फंसा संघ ख़ुद भी उस मिथक संसार की जटिलता समझने में नाकाम रहा हो जिससे उसकी अपनी विचारधारा को चुनौती मिलती। शायद यह अस्सी के दशक में छेड़ा गया राम मंदिर आंदोलन था जिसने पहली बार संघ परिवारियों का ध्यान इस तरफ खींचा कि न हिंदुत्व के बहुत सारे संस्करण होने चाहिए और न ही राम की बहुत सारी छवियां होनी चाहिए- बस एक ही हिंदुत्व और एक ही राम चाहिए जिसे अपनी राजनीतिक ज़रूरत के हिसाब से युद्धभूमि में उतारा जा सके।

इत्तिफाक से 1987 मेंजब संघ परिवारी राम की एक ऐसी योद्धा छवि बनाने और अपने इकलौते मंदिर के लिए रामनामी ईंटे जुटाने में लगे थेतभी लेखक और विद्वान एके रामानुजन का लेख, ‘थ्री हंड्रेड रामायंसफाइव एग्जैम्पल्स ऐंड थ्री थॉट्स ऑन ट्रांसलेशन पहली बार सामने आया। स्मृतिजनश्रुतिइतिहासमिथक और चेतना को एक साथ समायोजित करतारामकथा की लिखित और वाचिक परंपराओं को टेलिंग यानी किस्सागोई की तरह देखता यह अनूठा लेख बताता है कि राम कितने बड़े हैं, कितनी तरह के हैं और कितने आयामों और युगों में फैले हैं। इस लेख को पहली बार पढ़ते हुए मुझे हरबंसलाल ओबेरॉय याद आए जिनके पास भी राम की कई छवियां थीं और एक छवि उस कथा की भी थी जिसमें राम-सीता भाई-बहन बताए गए थे।

इस लेख की खूबी यही नहीं है कि इससे हमें रामकथा के विविध रूपों की जानकारी मिलती हैबल्कि यह भी थी कि इससे इतिहास और परंपरा के बारे में हमारी दृष्टि कुछ साफ होती है। इसे उचित हीदिल्ली विश्वविद्यालय के बीएइतिहास के पाठ्यक्रम में शामिल किया गया। लेकिन 2008 में संघ परिवार से जुड़े संगठनों ने इस नितांत सहिष्णुतापूर्ण लेख पर भी एतराज और हंगामा किया जिसके बाद सुप्रीम कोर्ट ने दिल्ली विश्वविद्यालय से इस लेख पर राय मांगी। दिल्ली विश्वविद्यालय ने इस पर चार विशेषज्ञों की कमेटी बनाई जिनमें से तीन ने साफ तौर पर इस लेख को बेहद महत्त्वपूर्ण बताते हुए पाठ्यक्रम के लिहाज़ से भी ज़रूरी बताया। सिर्फ चौथे विद्वान की इस पर असहमति थी। कायदे से इस पर बहुमत से फ़ैसला होना चाहिए थालेकिन हुआ नहीं। एकैडमिक काउंसिल ने लेख के ख़िलाफ़ फ़ैसला लिया। एकैडमिक काउंसिल के सिर्फ नौ सदस्य इस लेख के पक्ष में खड़े हुएबाकी या तो ख़िलाफ़ दिखे या फिर खामोशइस मासूम से लगने वाले बहाने के साथ कि इस राजनीति में उन्हें नहीं पड़ना है। इस तरह एक बहुत ही समृद्ध, शोधपूर्ण, बहुलतावादी और अपनी प्रकृति में नितांत समन्वयकारी पाठ दिल्ली विश्वविद्यालय के लिए अस्पृश्य हो गया।

यह शर्मनाक है और डरावना भी। यह हमारे समय और समाज में बढ़ रही अपढ़ता और असहिष्णुता दोनों का सूचक है। इसमें शक नहीं कि रामानुजन के लेख का विरोध करने वाले ज्यादातर लोगों ने वह लेख पढ़ा ही नहीं होगा। वह सलमान रुश्दी की रचनाओं की तरह किसी मान्यता को चिढ़ाने वाला लेख नहीं है और न ही तसलीमा नसरीन के लेखों की तरह किसी आक्रोश से भरा हुआ, वह बस एक सुंदर और सहिष्णु लेख है जिसे बहुत मेहनत और शोध से तैयार किया गया और जिसे पढ़ते हुए रामकथा या रामकथाओं की विराटता के प्रति सम्मान ही पैदा होता है। लेकिन खुद को रामभक्त और संस्कृति का पहरेदार बताने वाली ताकतों को ऐसे राम नहीं चाहिए क्योंकि वे उनकी क्षुद्र राजनीति के दायरे में समाते नहीं। हरबंसलाल ओबेराय आज इस अगर इस संघ परिवार में बचे होते तो ख़ुद को एकाकी और कई तरह के हमलों के बीच असुरक्षित पाते।  

यह रामानुजन प्रसंग इस बात की नए सिरे से पुष्टि है कि विचार और अभिव्यक्ति की जो बुनियादी स्वतंत्रता है, उस पर हमले तीखे हुए हैं। असहिष्णु ताकतें अपना दाय़रा लगातार बढ़ा रही हैं और इसकी जद में आकर वे सारे उदार-अनुदार, सायास-अनायास पाठ कुचले जा रहे हैं जो उनकी विचारधारा से मेल नहीं खाते। रामानुजन का लेख इसकी ताज़ा कड़ी भर है। ऐसी ही ताकतों के दबाव में इसके पहले मुंबई विश्वविद्यालय से रोहिंटन मिस्त्री के उपन्यास सच अ लांग जर्नी को हटाया गया। यही वे लोग हैं जिन्होंने मक़बूल फिदा हुसेन जैसे गंगा-जमनी ही नहीं, कई और रंगों और परंपराओं की तूलिका साधने वाले कलाकार की पेंटिंग्स जलाईं और आखिरकार 90 पार की उम्र में उन्हें देश से बाहर रहने और वहीं मरने पर मजबूर किया। इन्हीं लोगों ने एक दौर में हबीब तनवीर के नाटकों पर हमले किए। यही लोग कश्मीर पर अलग राय रखने की वजह से प्रशांत भूषण के साथ हाथापाई करते हैं और अंत में ऐसे ही लोग दिल्ली विश्वविद्यालय में एके रामानुजन का लेख हटाए जाने के विरोध में प्रदर्शन कर रहे लोगों को धमकी भी देते हैं कि उनसे अपने ढंग से निबटा जाएगा।

यह एक ख़तरनाक चलन है जो पूरे समाज पर अपनी तरह का सतहीपन लादना चाहता है। कविता, कहानी, लेख, विचार और शोध में उसे वही मंज़ूर है जिससे सपाट, अप्राश्नेय और अतार्किक किस्म की दक्षिणपंथी मूल्य संहिता की पुष्टि होती हो। सौंदर्य, सरोकार और बहुलता जैसे इसके लिए अजनबी शब्द हैं।

एके रामानुजन का लेख हनुमान की कहानी से शुरू होता है जो राम की खोई हुई अंगूठी खोजने निकले हैं। पाताल का राजा एक थाली में ढेर सारी अंगूठियां लेकर आता है और कहता है कि हनुमान अपने राम की अंगूठी खोज लें। हनुमान यह देखकर हैरान हैं कि सारी अंगूठियां राम की हैं। पाताल लोक का राजा बताता है कि वाकई जितनी अंगुठियां हैं, उतने राम हुए हैं। जब वह अपना समय पूरा कर लेते हैं तो उनकी अंगूठी उनके हाथ से निकल कर पाताल में पहुंच जाती है जिसे वह संभाल कर रख लेता है। इसके बाद दूसरे राम आते हैं और दूसरी अंगूठी आती है।

लेकिन संघ परिवार को राम की यह न ख़त्म होने वाली परंपरा मंज़ूर नहीं। वह अपने एक राम के पीछे पड़ा है और उसकी अंगूठी भी ठीक से पहचान नहीं पा रहा है। वह जैसे सारी अंगूठियां छीन कर छुपा लेना चाहता है। वह राम को लोकस्मृति और परंपरा की ज़मीन से उठाकर अपनी विचारधारा के दुर्ग में कैद करना चाहता है। लेकिन इससे राम दूर चले जाते हैं। डर बस इतना है कि वे इतने दूर न चले जाएं कि फिर लौट कर आ भी न सकें। अगर हम चाहते हैं कि राम लौटें तो हमें पहले रामानुजन को लौटाना होगा।

Saturday, September 4, 2010

हुसेन चले गए सरस्वती को बचा लें

मक़बूल फ़िदा हुसेन अब क़तर के नागरिक हैं। हालांकि इस दस्तावेज़ी नागरिकता से उनकी भारतीयता ख़त्म नहीं हो जाएगी। वे चाहें तो भी यह मुमकिन नहीं है। अपनी कोख, भाषा और मिट्टी हम चुनते नहीं, वह हमारी पैदाइश के साथ चली आती है। बाद में हम जो हो जाएं, जहां चले जाएं, जैसी भी बोली बोलने लगें, चाहे जिस भी देश की नागरिकता ले लें, हमारी बनावट और बुनावट तय़ करने वाले गुणसूत्र वही रहते हैं, हमारा मुल्क वही रहता है।
मकबूल फिदा हुसेन नाम का कलाकार भी इन्हीं गुणसूत्रों की देन है। उसे पंढरपुर के तीर्थ की मिट्टी ने बनाया है, उसे जैनब की कोख ने बनाया है, उसे हिंदी की फिल्मों ने बनाया है। जिस कला ने उसे शोहरत दी, उसके रंगों में, उसकी रेखाओं में यह पूरी परंपरा तरह-तरह से बोलती है। कतर में भी वे जो काम करेंगे, उसमें हिंदुस्तान बोलेगा। हालांकि शायद तब वह उतना चटख न रह जाए। क्योंकि अंततः अपनी अनुपस्थिति की क़ीमत उन्हें कुछ तो चुकानी ही होगी।
लेकिन अनुपस्थिति की ऐसी नौबत आई क्यों? यह एक मासूम सवाल लग सकता है, क्योंकि सबको मालूम है कि मक़बूल फ़िदा हुसेन के बनाए कुछ चित्रों से नाराज़ समूहों ने उनके विरुद्ध मुक़दमों और प्रदर्शनों की झड़ी लगा रखी थी। लेकिन हुसेन सिर्फ़ इस असहिष्णुता से घबरा कर भागे हों, ऐसा लगता नहीं। वे खुद मानते और बताते हैं कि 99 फ़ीसदी भारतीय उनके साथ खड़े हैं। फिर हुसेन ने अपने विरुद्ध ख़डी कट्टरपंथी ताकतों से संघर्ष क्यों नहीं किया? उनका कुछ बेबसी भरा जवाब यह है कि वे 40 के होते तो करते, 95 बरस की उम्र में उनके पास न इतना वक़्त बचा है न सब्र कि अपने बाकी काम छोड़कर यह लड़ाई लड़ें। कतर ने उन्हें सहूलियतें दीं और साधन दिए इसलिए वे कतर के हो गए।

अब इस प्रश्न को दूसरी तरफ से पूछना चाहिए। भारत अपने एक कलाकार को रोक क्यों नहीं सका? और क्या हुसेन अकेले कलाकार हैं जो भारत छोड़कर चले गए और किन्हीं और देशों के हो गए? ध्यान दें तो ऐसे अनेक भारतीय मूर्द्घन्य हैं जिन्होंने अपनी कला और साधना के लिए पश्चिम को चुना है। भारतीय संगीत और नृत्य से जुडे कई बड़े गुरु विदेशों में बसे हुए हैं। हुसेन आज पराये हुए, सितारवादक पंडित रविशंकर न जाने कब से पराये हैं। यही बात फ्रांस में रह रहे सैयद हैदर रज़ा के बारे में कही जा सकती है। इन लोगों का परायापन चलेगा क्योंकि यह किसी असंतोष से पैदा हुआ परायापन नहीं है, यह बात कुछ जमती नहीं।
बहरहाल, क्या हम हुसेन की, रज़ा की या किसी दूसरे बड़े मूर्द्धन्य की कमी महसूस करते हैं? क्या हमारा समाज अपने कलाकारों और गुरुओं के बिना कोई ख़ला, कोई ख़ालीपन महसूस करता है? हुसेन के संदर्भ में यह तर्क हाल के दिनों में कई बार सुनने को आया है कि अगर हुसेन हिंदुस्तान के न भी रहें तो क्या फर्क पड़ेगा? वैसे भी हुसेन इन दिनों बाज़ार के, बॉलीवुड की सस्ती चमक-दमक के और अपनी शोहरत के गुलाम की तरह कहीं ज्यादा चित्र बना रहे थे, एक ऐसे मेधावी भारतीय की तरह कम, जिसका भारतीय समाज से सीधा संवाद हो। लेकिन यह आरोप सिर्फ़ हुसेन पर क्यों? क्या हमारी समूची समकालीन चित्रकला अपने समाज में कोई जगह बनाने के लिए बेताब दिखती है? उसे आम तौर पर गुणग्राहक दर्शकों से ज्यादा गांठ के पूरे ग्राहकों की तलाश रहती है जो उसके नाम पर बडी रकम का टैग लगा सके। हाल के वर्षों में भारतीय चित्रकारों के नाम जब भी सार्वजनिक चर्चा में आए हैं तो बस यह बताते हुए आए हैं कि सदेबी या क्रिस्टी में किसी ग्राहक ने उनका कितना बड़ा मोल लगाया है।
कमोबेश यही बात संगीत गुरुओं के बारे में कही जा सकती है। उनकी स्थिति बस इस लिहाज से बेहतर है कि उनके कैसेट और सीडी-डीवीडी हिंदुस्तान चले आते हैं, वरना उनके कंसर्ट अक्सर विदेशों में या फिर बड़े भारतीयों के बीच होते हैं। वे ग्रैमी और ऑस्कर के लिए जाना जाना ज्यादा पसंद करते हैं।
सवाल है, यह किसका कसूर है? क्या कलाकारों का, जो अपने समाज और देश के प्रति उस तरह निष्ठावान नहीं हैं जिस तरह उनके होने की अपेक्षा हम उनसे कर रहे हैं? या फिर समाज का, जिसमें अपने कलाकारों को प्रेरित कर सकने लायक ऊर्जा और ऊष्मा नहीं बची है?
इस सवाल का जवाब आसान नहीं है। कुछ अफसोस के साथ हमें यह मानना पड़ता है कि हाल के वर्षों और दशकों में भारतीय समाज की सांस्कृतिक-सामाजिक चेतना कुंद पड़ी है। इस दौर में पैदा हुई नई उपभोक्तावादी भूख ने उसकी प्राथमिकताएं जैसे बदल दी हैं। संगीत के लिए उसकी कॉलर ट्यून है, चित्रों के लिए उसके स्क्रीनसेवर हैं, नाटक की जगह वह कॉमेडी सर्कस और रियलिटी शो देखता है और मनोरंजन और संस्कृति की बची-खुची ज़रूरत फिल्मों से पूरी कर लेता है। इस सांस्कृतिक शून्य में सतही राजनीति उसे समझाती है कि साहित्य और धर्म का मतलब क्या होता है, कला और देश का मतलब क्या होता है। जब यह सतही राजनीति हमारे सांस्कृतिक मूल्य निर्धारित करने लगती है तो वह कलाकार का धर्म देखती है, कला के आवरणों को समझने की जगह निरावृत्त सरस्वती और भारतमाता को देखकर उत्तेजित होती है और कलाकार से पूछती है कि वह किसी दूसरे धर्मगुरु की तस्वीर क्यों नहीं बनाता।
कलाकार इस सवाल का जवाब कैसे दे? कैसे बताए कि कला की प्रेरणाओं के पीछे धर्म के ऐसे सुचिंतित आग्रह नहीं होते? किसे बताए कि उसने जो चित्र बनाए हैं, वे उस तरह अश्लील या नग्न नहीं, जिस तरह प्रचारित किए जा रहे हैं। वे बस चित्रकला की बहुत आम परंपरा के प्रयोग हैं जिसमें नग्नता कहीं से वर्जित नहीं है और न ही वह अश्लील नजर आती है।
अगर समाज इन प्रयोगों से परिचित होता तो वह शायद बहस कर पाता कि ये चित्र अच्छे हैं या नहीं। हुसेन के अपने कृतित्व में सीता, सरस्वती या भारत माता के जैसे चित्रों की जगह कितनी है। तब शायद उसे यह भी मालूम होता कि हुसेन ने सिर्फ ऐसे चित्र ही नहीं बनाए हैं, इनसे कई गुना ज्यादा ऐसे देवी-देवताओं को चित्रित किया है जो हमारी परंपरा का सुरुचिपूर्ण और कलात्मक विस्तार करते हैं। उन्होंने ऐसे गणेश बनाए हैं जो लुभाते हैं, ऐसी सरस्वती भी चित्रित की है जो श्रद्धा जगाती है, अपनी मां की तलाश करते-करते हुसेन मदर टेरेसा तक पहुंच गए हैं और नीली कोर वाली उजली साड़ी में उन्होंने करुणा की ऐसी मूरतें बनाई हैं जिनके सामने सिर झुकाने की इच्छा होती है।
यह सब मालूम होता तो समाज अपने कलाकार का ज्यादा सम्मान करता। जिन चित्रों को वह आपत्तिजनक मानता, उनके प्रति भी क्षमाशील होता। लेकिन कलाकार और उसका समाज एक-दूसरे से अजनबी हैं। दुर्भाग्य की बात यह है कि यह सिर्फ एक कलाकार की स्थिति नहीं, हमारे पूरे सांस्कृतिक संसार की नियति है।
यह स्थिति किसी मकबूल फिदा हुसेन को कतर जाने के लिए मजबूर करती है। राजनीतिक व्यवस्था बताती है कि हुसेन भारत लौटने के लिए स्वतंत्र हैं और उन्हें यहां पूरी सुरक्षा दी जाएगी। वह व्यवस्था यह नहीं समझती कि मामला किसी ख़ास नागरिक को सुरक्षा मुहैया कराने का नहीं, स्वतंत्रता का एक ऐसा माहौल बनाने का है जिसमें कोई आदमी आजादी से घुमफिर सके, लिख-पढ़ सके, सोच-विचार सके। जहां उसे यह डर न हो कि उसके किताबें जलाई जाएंगी, उसकी तस्वीरें नष्ट की जाएंगी, उसकी फिल्मों के प्रद्रर्शन रोके जाएंगे, उसके रंगमंच के दौरान हंगामा होगा। राज्य या समाज से यह न्यूनतम अपेक्षा है जो कोई लेखक या कलाकार कर सकता है, वरना राज्य के फर्ज़ कहीं ज़्यादा दूर तक जाते हैं, उसे कला और साहित्य को संरक्षण देने की ज़िम्मेदारी उठानी पड़ती है।
लेकिन जो व्यवस्था न्यूनतम मानवीय मूल्यों की क़द्र नहीं करती, उससे हम कला और साहित्य से जुड़े मूल्यों के सम्मान की उम्मीद रखें तो इसमें हमारी नादानी झांकती है। दुर्भाग्य से अभी जो कुछ हो रहा है, वह इन अपेक्षाओं का विलोम है। हमारी लोकतांत्रिक आजादी पर दबाव बढे हैं, हमारी अभिव्यक्ति पर पहरे कड़े हुए हैं। जो लोग हुसेन से यह शिकायत कर रहे हैं कि उन्होंने संघर्ष किए बिना कट्टरपंथियों से हार मान ली, उन्हें बताना चाहिए कि उन्होंने एक दूसरे बूढ़े, रंगकर्मी हबीब तनवीर के संघर्ष में कितना साथ दिया था। हबीब के नाटकों पर लगातार हमले हुए। उन्हें बचाने कौन आया? बांग्लादेश की एक लेखिका हमसे सम्मानजनक शरण्य मांग रही है, हम वह देने को तैयार नहीं हैं।
यह सिर्फ कला–संस्कृति का नहीं, पूरे समाज के प्रति सरोकार और संवेदनशीलता का मामला है। जिस व्यवस्था में यह संवेदनशीलता नहीं होती, उसमें फासीवादी ताकतों की गुंजाइश बढती जाती है। दुर्भाग्य से हमारी व्यवस्था इसी दिशा में बढ़ रही है।
कतर जाने का फैसला मकबूल फिदा हुसेन की मजबूरी हो या मंशा, इसमें जितनी उनकी दरारें दिखती हैं, उससे ज्यादा हमारे समाज की। 95 साल की उम्र में जिस बूढ़े को अपना घर छोड़ना पड़े, वह एक बदनसीब बूढ़ा होता है। लेकिन जिस मुल्क को उसके लेखक और कलाकार छोड़कर चले जाते हैं, वह कहीं ज्यादा बदनसीब होता है, और इस अर्थ में असुरक्षित भी कि वहां आततातियों और फासीवादियों का कब्ज़ा बढ़ने का अंदेशा बड़ा होता जाता है। अब हुसेन नहीं हैं तो हमारी सरस्वती कहीं ज़्यादा खतरे में है।

Monday, December 1, 2008

रिंग टोन का बाज़ार और संस्कृति

बरसों पहले मैंने एक कहानी लिखी थी ‘अजनबीपन’- दिल्ली में अकेले रहते हुए रात को टेलीफोन बूथ से अपने घर फोन करने के अनुभव पर। मुझे याद है कि एसटीडी तारों के उन उलझे हुए दिनों में बड़ी मुश्किल से फोन मिला करते थे। लेकिन जब वे मिल जाया करते तो अचानक उनकी मशीनी ध्वनि बेहद मानवीय हो जाती- लगता था, जैसे पीप पीप की वह आवाज़ मुझे दिल्ली और रांची के बीच बिछे अनगिनत उलझे तारों के रास्ते १२०० मील दूर अपने घर के ड्राइंग रूम तक ले जाती है।
आज जब रिंग टोन और कॉलर ट्यून्स की एक रंगारंग दुनिया हमारे सामने है, तब भी मुझे रात ग्यारह बजे के आसपास बजती हुई वह पीप पीप याद आती है। क्योंकि इस ध्वनि से मेरी पहचान थी, वह मेरा धागा थी जो मुझे दूसरों के साथ बांधती थी। आज वह ध्वनि मुझे नहीं मिलती, क्योंकि जब भी मैं किसी को फोन करता हूं, दूसरी तरफ कोई धुन, किसी फिल्मी गीत की कोई पंक्ति, या कोई बंदिश प्यार, इसरार, मनुहार या शृंगार बिखेरती हुई मेरी प्रतीक्षा की घड़ियों को ‘मादक’ बनाने की कोशिश कर रही होती है।
दरअसल इन दिनों मोबाइल क्रांति ने ‘रिंग टोन’ और कॉलर ट्यून्स’ के जरिए जो नई सांगीतिक क्रांति की है, उसके कई पहलुओं पर ध्यान देना ज़रूरी है। आप किसी को फोन करें और आपको कोई अच्छी सी धुन या बंदिश सुनाई पड़े, इसमें कोई बुराई नहीं लगती। यही नहीं, जो लोग फोन पर अपनी पसंदीदा धुनें लगाकर रखते हैं, उनका एक तर्क यह भी हो सकता है कि इससे उनके व्यक्तित्व का भी कुछ पता चलता है।
लेकिन क्या संगीत का यह उपयोगितावाद क्या एक सीमा के बाद खुद संगीत के साथ अन्याय नहीं करने लगता? संगीत का काम सारी कला-विधाओं की तरह एक ऐसे आनंद की सृष्टि करना है जिसके सहारे हमें अपने-आप को, अपनी दुनिया को कुछ ज्यादा समझने, कुछ ज्यादा खोजने में मदद मिलती है। क्योंकि संगीत सिर्फ ध्वनियों का संयोजन नहीं है, वह संयोजन से उत्पन्न होने वाला भाव है।
लेकिन जब हम संगीत को ‘टाइम पास’ की तरह इस्तेमाल करते हैं तो उसका मूल तत्त्व जैसे खो जाता है। किसी फोन कॉल पर किसी बड़े उस्ताद की पांच सेकेंड से लेकर पंद्रह या तीस सेकेंड तक चलने वाली बंदिश जब तक आपकी पकड़ में आती है, ठीक उसी वक्त कोई आवाज इस बंदिश का गला घोंट देती है। आप शिकायत नहीं कर सकते, क्योंकि आपने संगीत सुनने के लिए नहीं, बात करने के लिए किसी को फोन किया है। संगीत तो बस उस इंतज़ार के लिए बज रहा है जो आपका फोन उठाए जाने तक आपको करना है। आप इस समय जम्हाई लें या बंदिश सुनें, किसी को फर्क नहीं पड़ता है। अलबत्ता बंदिश को ज़रूर फर्क पडता है, क्योंकि पांच बार उसे पांच-दस या बीस-तीस सेकेंड तक आप सुन चुके हैं और उसका जादू जा चुका है। छठी बार वह पूरी बंदिश सुनने भी आप बैठें तो उसका अनूठापन आपके लिए एक व्यतीत अनुभव है, क्योंकि आपको मालूम है कि इसे तो आपने अपने किसी दोस्त के मोबाइल पर सुन रखा है।
असल में हर फोन कॉल सिर्फ गपशप के लिए नहीं किया जाता। बल्कि सिर्फ गपशप जैसी कोई चीज नहीं होती- कोई न कोई सरोकार उस गपशप की प्रेरणा बनता है, कोई न कोई संवाद इसके बीच आता है, सुख या दुख के कुछ अंतराल होते हैं। जाहिर है, संगीत की कोई धुन या बंदिश इस संवाद में बाधा बनती है। आप किसी अफसोस या दुख की कोई खबर साझा करने बैठे हैं और आपको फोन पर कोई भैरवी या ठुमरी या चालू फिल्मी गाना सुनने को मिल रहा है तो आपको पता चले या नहीं, कहीं न कहीं, यह आपके दुख का उपहास भी है। यही बात सुखद खबरों के साथ कही जा सकती है।

संस्कृति एक बहुत बड़ी चीज है। उसे आप काट कर प्लेटों में परोस नहीं सकते, उसे टुकड़ा-टुकड़ा कर पैक नहीं कर सकते। लेकिन बाजा़र यही करने की कोशिश कर रहा है। वह मोत्सार्ट, बाख, रविशंकर, हरिप्रसाद चौरसिया और उस्ताद बिस्मिल्ला खां का जादू छीन कर उसे अपनी डिबिया में बंद कर रहा है और बेच रहा है। खरीदने वालों को भी संस्कृति का यह इत्र रास आ रहा है, क्योंकि इसके जरिए वह बता पा रहे हैं कि उनका नाता बड़ी और कलात्मक अभिव्यक्तियों से भी है।

यही नहीं, हर ध्वनि का अपना मतलब होता है, हर मुद्रा का अपना अर्थ। दरवाजे पर दस्तक देने की जगह कोई गाना गाने लगे तो इसे उसका कला प्रेम नहीं, उसकी सनक मानेंगे। ध्वनियों के सहारे हम हंसी को भी समझते हैं, रुलाई को भी। अगर हवा के बहने और पानी के गिरने की ध्वनियां किन्हीं दूसरे तरीकों से हम तक पहुंचने लगें तो समझिए कि कुदरत में कोई अनहोनी हुई है- या तो कोई भयावह तूफ़ान हमारे रास्ते में है या कोई विराट बाढ़ हमें लीलने को आ रही है। क्या मोबाइल क्रांति ने हमारी ध्वनि-संवेदना नहीं छीन ली है, वरना हम एक आ रहे तूफ़ान को पहचानने में इतने असमर्थ क्यों होते?

Sunday, November 23, 2008

स्मृति और विस्मृति

अप्रैल १९८० में पहली बार रांची में मेरे घर फोन लगा। मुझे उन दिनों अपने परिचितों के सारे फोन नंबर याद रहते। १९९३ में दिल्ली आया तो रांची के पांच अंकों वाले नंबरों की जगह आठ अंकों वाले नंबरों से पाला पड़ा। लगा कि इन्हें याद रखना मुश्किल है। लेकिन धीरे-धीरे इन नंबरों को याद रखने का अभ्यास हो गया। अपनी याददाश्त पर इस भरोसे या गुमान की वजह से ही मेरी फोन डायरी हमेशा अस्त-व्यस्त या आधी-अधूरी रहती। इसी तरह तारीखों और पंक्तियों को याद रखने का भी मेरा एक अभ्यास बना रहा। लेकिन अब ये सारे अभ्यास बेमानी जान पड़ते हैं। मोबाइल फोन का स्मृति कोष इतना पर्याप्त और त्वरित है कि नंबर याद रखना दूर, उसे देखने की भी जरूरत नहीं पड़ती। जाहिर है, मोबाइल ने यह सुविधा दी है कि तनाव से भरे अपने मस्तिष्क में मैं फोन नंबर याद रखने का नया तनाव मैं न पालूं।
तकनीक ऐसी और भी कई सुविधाएं दे रही है। अध्ययन, मनन या तथ्यों का संचयन पुराने ज़माने की बात है। आज आप गूगल पर जाकर सर्च करें तो पलक झपकते इतनी सूचनाएं आपके सामने उपस्थित हो जाती हैं कि अपनी याद के सहारे कुछ लिखना आपको हास्यास्पद मालूम पड़ता है। अगर किसी रूपक की तरह देखना चाहें तो कह सकते हैं कि तकनीक ने स्मृति को बेमानी बना डाला है। याददाश्त आज फुरसत वाले लोगों का विलास है वरना कंप्यूटर और इंटरनेट सबके पास है। लेकिन क्या यह पूरा सच है? अपने ही अनुभव से जानता हूं कि जितनी तेजी से मैं तारीखें और संख्याएं याद रखता हूं, उतनी ही तेजी से नाम, गलियां और चेहरे भूल जाता हूं। इस भुलक्कड़ी ने मेरे लिए लगभग लज्जित होने की स्थितियां बनाई हैं। यानी स्मृति और विस्मृति का एक खेल हमारे मस्तिष्क के अभ्यास से बनता चलता है। हम चाहें तो हमारे हिस्से की स्मृति का बोझ उठा कर तकनीक जो नई जगह दे रही है, उसका कहीं ज्यादा बेहतर इस्तेमाल कर सकते हैं। लेकिन यहां भी एक फांस है। तकनीक अगर एक बोझ उठा रही है तो कई नई गठरियां हमारे ऊपर लाद भी रही है। याद आप तब करेंगे जब वर्तमान से फुरसत पाएंगे- लेकिन आपके पास आपका टीवी है, फोन है, इंटरनेट है, याहू है, यू ट्यूब है- यानी किस्सों, रंगों, सूचनाओं, संवादों और चित्रों से लैस एक ऐसी दुनिया है जिसमें आप पलट कर अपने को भी नहीं देख सकते, दूसरे को क्या देखेंगे। यह आज आप पर इस तरह हावी है कि आने वाले कल आपके दिमाग से गायब है- फिर बीता हुआ कल आपकी स्मृति में क्यों बचेगा?